सहारनपुर शहर से मेरा कोई पुराना नाता तो नहीं है
लेकिन मैने इस शहर को करीब से जाननें की बहुत कोशिश कि और पहली बार सहारनपुर जिले
की सरज़मी पर जब मेरे कदम पड़े तो इस शहर ने मुझे पहली बार में ही अपनी ओर आकर्षित
किया. कहते है कि ‘फर्स्ट इम्प्रेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन’ ठीक कुछ वैसा ही
मेरी साथ हुआ. पहली बार में ही सहारनपुर ने मुझे मेरठ शहर जैसा अहसास कराया था.
मेरठ और सहारनपुर के बीच का फासला यहाँ बोली जाने वाली केवल क्षेत्रीय भाषा का ही है.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सहारनपुर की दूरी करीब 150 किमी है. पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के ये तीनों जिले (मेरठ, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर) दंगा प्रभावित और
अतिसवेंदनशील क्षेत्र है. तीनों जिले में गन्ने की फसल की पैदावारी अच्छी खासी
होती है. दिल्ली से सहारनपुर का रास्ता वाया मेरठ और मुजफ्फरनगर होकर जाता है. यूपी
का सहारनपुर जिला हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड की सीमा से सटा हुआ है. उत्तराखंड
बनने से पहले सहारनपुर हरिद्वार जिले के अंतर्गत ही आता था.
दंगे का दंश झेल रहा यूपी आज पूरे देश में सबसे अराजक
राज्यों की सूची में शुमार होचला है और अपराध
में मामले में पहले पायदान पर जा खड़ा हुआ है. पश्चिमी यूपी को हरित प्रदेश का
दर्जा देने के लिए राज्य में कई बार सियासी तूफान भी आए लेकिन यह हरित प्रदेश न
होकर दंगाई प्रदेश में ज़रूर शामिल हो जायेगा. राज्य में आए दिन खूनी खेल का ग्राफ
लगातर बढ़ता जा रहा है जोकि एक चिंता का विषय बना हुआ है. राज्य सरकार हाथ पर हाथ
धरे बैठी है जिस कारण एक समुदाय के लोगों में दूसरे समुदाय के प्रति हिंसा कूट
कूटकर भरी हुई है. राज्य में हर समुदाय के लोग अपने को असुरक्षित महसूस किए हुए
है. राज्य का पुलिस प्रशासन इतना कमजोर है कि वह कोई भी कदम बिना हाई कमान के आदेश
के खिलाफ़ नहीं उठा सकती. चाहे उसके सामने अपराधी अपराध ही क्यों न कर रहे हो.
ऐसी कानून व्यवस्था से यूपी की जनता तिरस्त आ चुकी
है. सपा सरकार दंगाईयों पर काबू पाने के लिए विफल है. शहर दर- शहर दंगे हो रहे है
लेकिन सरकार और प्रशासनिक तन्त्र मूकदर्शक बनकर देखती रहती है. वैसे तो देश में
खाकी वर्दी वालों को फ़रिश्ता कहा जाता है कि जब भी किसी पर कोई मुसीबत आती है, तो
देश के ये रहनुमा शक्तिमान की तरह लोगों की जान बचाते है लेकिन अब यूपी पुलिस खुद अपनी
जिम्मेदारी से भाग रही है. शहर दंगे की आग में जल रहा होता है लेकिन पुलिस प्रशासन
घंटों बाद मौके पर पहुँच कर अपनी कार्यवाही करती है. दंगा पीड़ित जब इन खाकी वर्दी
वाले फरिश्तों से मदद की गुहार लगाते है तो खाकी वर्दी वाले “वेट एंड वाच”
का तमगा देकर आगे चले जाते है और पीड़ित पुलिस के सामने ही दम तोड़ देते है. ऐसे में
सवाल पुलिस पर इसलिए खड़े हो रहे है कि आखिर पुलिस के हाथ क्यों पीछे बंधे है और
किस लिए बंधे है. राज्य की सपा सरकार में अब तक 400 दंगे हुए सभी ने पुलिस प्रशासन
पर ही सवाल खड़े किए है. मुजफ्फरनगर दंगे के घाव अभी सही से भरे भी नहीं थे कि दंगा
पीड़ित पडोसी जिला सहारनपुर भी दंगे की भेंट चढ़ गया.
सही में दंगाईयों का न तो कोई माँ - बाप होता है और न
ही कोई भाई - बहन, दंगाई तो नंगे होते है. इसमें न तो किसी की जात पात देखी जाती
है और न ही किसी का मजहब, दंगे में जो भी भेंट चढ़ता है उसी को शिकार बनाया जाता है. करीब दस
महीने पहले मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से पश्चिमी यूपी में मुरादाबाद के काठ कस्बे
में 6 जुलाई को मंदिर से लाउडस्पीकर उतारे जाने को लेकर जो बवाल उठा वह भी देश की
जनता ने देखा और सहारनपुर में गुरुदुवारा निर्माण को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने
दंगे को जो हवा दी वह भी देश के सामने आ चुकी है. असमाजिक तत्व दंगे को हवा तो दे
देते है लेकिन भेंट चढ़ता कौन है सिर्फ वही लोग जिसका इस दंगे से कोई वास्ता नहीं
होता है. आखिर उन बेगुनाहों का क्या कसूर था ? जो इनको कीड़े मकोड़े की तरह मसल दिया
गया. 22 मई 1987 का (मेरठ) हिन्दू - मुस्लिम दंगा आज भी लोगों के दिलों में खटास
पैदा किये हुए है जिसके चलते यहाँ के लोगों के दिलों में आज भी घाव ताज़ा है. 1987 के
दंगे में 42 मुस्लिम युवकों की हत्या कर दी गई थी. आज भी इस दंगे का नाम सुनते ही
उस वक्त के लोग कांप उठते है क्योंकि इस दंगे ने इतने घाव मेरठ को दिए है कि इसकी भरपाई
कर पाना मुश्किल है.
भारतीय परम्परा में हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई वाला
नारा, देश को हर मुल्क में एक सन्देश देती है कि भारत सर्वधर्म, सद् भाव वाला देश
है जिसका सबसे बड़ा धर्म होता है राष्ट्रधर्म. ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत
के सभी धर्म संप्रदाय के एथलीटों ने अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया. यह इसीका नतीजा
रहा कि भारत एक जुट होकर खेला, आज भी भारत के ताकत के सामने सारी ताकतें छोटी साबित हो चली
है. देश असमाजिक तत्व और गन्दी राजनीति के
दलदल में इस कदर फंसता चला जा रहा है कि जिसके चलते देश में अराजकता का माहौल बढ़ा है.
दंगे सिर्फ मजहब, पैसा और कुर्सी के लिए ही कराए जाते है जिसके लिए सिर्फ
राजनीतिदान ही जिम्मेवार होते है.
जिस सहारनपुर में बाबा लालदास और हाजी शाह कलाम की
दोस्ती की मिसाल दी जाती है. आज वही जिला दो संप्रदाय में बंट गया है. यूरोप 14
वीं सदी तक समाज असभ्य था. उनका विज्ञान-धर्म के बीच विवाद था उन्होंने इस झगडे को
समाप्त किया और वे तरक्की कर गए लेकिन हम हजारों सालों से सभ्य समाज थे मगर हम
सियासी चालों के चक्कर में पड़कर असभ्य हो गये है और आज हालत हमारे सामने है. यह भी
इसीका परिणाम है कि देश में सिर्फ दंगे की बलि सिर्फ बेगुनाह लोग ही चढ़ते है. 22
बरस बाद सहारनपुर फिर से दंगे की चपेट में आ खड़ा हुआ. साप्रदायिक सौहार्द का
प्रतीक माना जाने वाला यह शहर पहली बार 1982 में दंगे की भेंट चढ़ा था जब मंडी थाना
क्षेत्र चिलकाना रोड पर मंदिर-मस्जिद मिली हुई थी तब भी दीवार के निर्माण को लेकर
भारी बवाल हुआ था. जब भी कई लोगों की मौते हुई थी.
वर्ष 1991 में रामनवमी जुलूस के दौरान भी शहर में
दंगा भड़का था. उस वक्त भी रमजान चल रहे थे. तब धार्मिक स्थल के पास बैंड बजाने को
लेकर विवाद हुआ था. जिसने देखते ही देखते दंगे का रूप ले लिया था. वर्ष 1992 में
अयोध्या राम मंदिर मामले की चिंगारी भी सहारनपुर तक पहुचीं थी और तब भी शहर की
दुकानों में लूटपाट की गई थी और लोगों को कर्फ्यू में रहना पड़ा था. गंगा जामुनी
तहज़ीब और आपसी भाईचारे की एक अनूठी पहचान रखने वाले सहारनपुर को 1997 में जिले का
दर्जा दिया गया. दुनिया भर में लकड़ी के काम के लिए मशहूर सहारनपुर को आखिर किसकी
नज़र लगी जो देखते ही देखते ही दंगे की आग में जल उठा ओर शहर खौफ के साये में जीने
लगा. आखिर यह आग क्यों लगी इस आग ने दिलों में ऐसा दर्द दिया जिसके जख्म को भरने
में अभी समय लगेगा.
करीब बीते एक बरस पहले मुजफ्फरनगर दंगे के दौरान
खुराफातियों ने भी यहाँ की फिजा को बिगाड़ने की खूब कोशिश की थी लेकिन यहाँ के
लोगों ने आपसी भाई चारे के लिए हर तरफ हमेशा से मौर्चा संभाले रखा मगर लोकसभा
चुनाव के दौरान माहौल में जो खटास आई वह अभी तक बनी हुई है जिसके चलते चुनाव में
मतों का ध्रुवीकरण हुआ सहारनपुर दंगे के बाद से राज्य सरकार सतर्क ज़रूर हुई है
लेकिन अभी भी कहीं न कहीं यह पूरा मामला अब राजनीति पर जाकर टिकता नज़र आ रहा है.